Wednesday 13 March 2019

वो घड़ियां

वक़्त बड़ा अजीब होता है
ज़िन्दगी कब बदल दे कहा नहीं जा सकता..
एक अरसा बीतने के बाद अपने पुराने कैफे में कॉफी के साथ शाम के कुछ सुकून भरे पल गुजारने का मन बनाए सिया अंदर आयी और दाहिनी तरफ पड़े टेबल जो की बाहर की खिड़की के बिल्कुल नजदीक था, की तरफ बढ़ी। कॉफी का ऑर्डर देकर वो कभी बाहर की सूनी सड़क को देखती तो कभी बाईं दीवार पर टंगी बड़ी सी दीवार घड़ी को.... और जैसे दोनों से ही कुछ पूछना चाहती थी लेकिन घड़ियां किसी के लिए रुक कर जवाब नहीं देती और सड़कें तो बस चलते चले जाने का इशारा ही करती हैं।
जिस कैफे में सिया की ज़िन्दगी बदलने वाले पल कैद थे आज वहां वो खुद को ही कैद सा महसूस कर रही थी। उलझन और बेचैनी ने जैसे बैठना मुश्किल कर दिया था।
.....

-"तुम्हारी नौकरी का क्या हुआ?" अभी ने सिया से पूछा
-" पता नहीं यार.. देखो .. वक़्त के पहले कहां कुछ होगा"
-"हम्म... परेशान मत हो.. सब ठीक हो जाएगा। वैसे भी तुम पे भरोसा है ।"
कहकर अभी मुस्कुराया ।
दोनों अपने घरों से काफी दूर पड़ने वाले कैफे में बैठकर अक्सर साथ वक़्त बिताया करते और एक दूसरे  को बस यूं देखा करते जैसे ना जाने कौन सी मुलाक़ात आखिरी हो उनकी।
एक दिन ऐसे ही पलों में सिया ने अभी से पूछा-
" तुम्हे घर में अकेलापन नहीं लगता ?"
"hmm.... तो क्या करूं?"
" अरे! शादी करो.. कम से कम एक परिवार होगा तुम्हारा वरना तुम्हारे घर पे सब जैसे हैं उससे तो तुम ये शहर छोड़ दो तो बेहतर है.. घर पे रहने के लिए घर वाले होना नहीं बल्कि उनकी मौजूदगी का एहसास भी जरूरी है"

-" बस हो गया ज्ञान? ठीक है यार.. जब तक टाल सकता हूं टालूंगा फिर तो होना ही है जो होगा !"
अभी ने मायूसी भरे लहजे में कहा।

-" फिर तुम आना मेरे पास.. में तुम्हे चाय और खाना दोनों दूंगी"
कहते हुए सिया हंस पड़ी।

-"तब उतनी देर ना रुक पाऊंगा.. बस तुम्हे देखूंगा और चला जाऊंगा"

थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया।

" तुम्हारी घड़ी बोहत सुंदर है"
सिया ने अभी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा।

-" तुमने ही तो पसंद की थी दीदी के साथ मेरे लिए.... वैसे तुम्हारी भी अच्छी है"

-" घड़ियां कितनी भी अच्छी क्यूं ना हों.. अच्छे पलों के लिए वक़्त को नहीं रोक पाती.. 
अरे देखो मेरी घड़ी में तो कुछ अलग ही बज रहा है "
कहकर सिया ज़ोर से हंसी और  कलाई में बंधी घड़ी का टाइम ठीक करने की कोशिश करने लगी।

-" लाओ मैं ठीक कर देता हूं तुम्हारा वक़्त"

-"मैडम आपकी कॉफ़ी..!"

 जैसे सिया गहरी नींद से जागी ..
सामने वेटर को खड़ा देख थोड़ा मुस्कुराई और बिल करते हुए बोली..
"ठीक है रख दीजिए।"

वेटर ने दोनों कप टेबल पर रखे और चला गया।।
आज भी सिया अकेले वो कॉफ़ी नहीं पी सकी।
उठी और तेज़ क़दमों से उस सूनी सड़क पर निकल पड़ी।

कानों में वही शब्द गूंजते रहे......
"  लाओ मैं ठीक कर देता हूं तुम्हारा वक़्त"

उनका मिलना नामुमकिन था... कई कारणों से ..
कारण। जो समझाए नहीं जा सकते जो बताए नहीं जा सकते
कुछ बेड़ियां कुछ दीवारें जिन्हें तय करती रहीं।
लेकिन नजदीकियां कोई रोक नहीं सका।

सिया की ज़िन्दगी में अभी का आना शायद सिया के लिए उतना ही जरूरी था जितना कि एक पंछी के लिए पिंजरे का दरवाज़े का खुलना।
अभी ने सिया का हाथ पकड़ा और आज़ाद किया.. उस कैद  से जिसमें रहने। की सिया अपनी किस्मत मान चुकी थी और खुद को सिया से दूर कर लिया।

दोनों पहले ही जान चुके थे के यही होना है आख़िर में।

फिर भी......... 😊😊





Wednesday 26 July 2017

मेरा अंतस घबराकर पुकारता है तुम्हें

मेरा अंतस घबराकर पुकारता है तुम्हें
नेत्र एकटक द्वार पर स्थिर हो जाते हैं
हृदय के पट खड़-खड़ की ध्वनि से संपूर्ण तन स्पंदित कर देते हैं
तुम्हारे पूर्व आश्वासनों का मुझे विस्मरण हो चुका है
यह कदापि मेरी भूल नहीं...
तुम तो एक स्तंभ की भाँति मेरे हृदयस्थल में विराजमान हो..
परंतु तुम्हारी आशा के विपरीत....
मैंने गँवा दिया वह कौशल
कि पा सकूँ तुम्हें निर्विवाद ....
और तुम ... तुम मेरी आशा के विपरीत ..
निरे कठोर ही रहे...!



Sunday 23 July 2017

जीवन रात्रि

कमनीय रात्रि के अवसर पर
जैसे कोई नवयौवना 
बैठी हो...
सुंदर वस्त्र, आभूषणों से लिपटी, ढकी..
कर रही हो प्रतीक्षा
शेष रात्रि के समापन की..
  समस्त बंधनों, माया से लिपटी
  पवित्र, अनछुई आत्मा..
  उसी भाँति प्रतीक्षारत है..
जीवनरूपी रात्रि की समाप्ति पर,
अगाध संदेह, समर्पण, स्वाभिमान बटोरे...
क्या बीत जायेगी रात्रि निश्चेष्ट ही ?
या संभवतः..
कुछ आनंदित क्षण एवं,
कुछ भौतिक संघर्ष भी चल पड़ेंगे साथ ...
   रात्रि के अंत तक !
'आभूषण' कदाचित प्रदान करते हैं सुंदरता, वैभव
किंतु
रात्रि के अँधेरों में,
सुखद कलापों हेतु..
उतार देना ही श्रेयस्कर है इन्हें !!

Saturday 20 May 2017

छल

उतरती हुई धवल-पीत किरणों के मध्य
अपराजित सुबह के स्वागत में..
अलसाती हुई कलियाँ
इतराती हुई पवनें कुछ यूँ झुकती हैं
ज्यों..
मदमाती, ठहरी, काली ठंडी रात में 
श्वेत शिला पर बैठी प्रेयसी के सम्मुख,
ना चाहते हुए भी..कोई कामजित योद्धा.. 
झुककर शस्त्र डाल दे
समर्पित कर दे स्वयं को उसके समक्ष...

लक्ष्य पूर्ण कर,
किसी अविचलित,
जितेन्द्रिय योगिनी की भाँति वह, 
जैसे..
उठकर चल दे .. छोड़कर, छलकर उसे,
छीनकर उससे उसका समस्त तेज...
कुछ यूँ ही..
यह बेला भी त्याग देती है जग को
एक निश्चित काल के लिये..
प्रकृति द्वारा
रात्रि भर समेटे हुए रंगीन सौन्दर्य को, 
संध्या तक बटोरकर... छीनकर समस्त आभा..

शेष अँधकार ...!!

Saturday 6 May 2017

Aadhi si Nazm

आहिस्ते से जब रात आई..
कई सौगातें भी साथ लाई...
आधा सा चाँद, आधी ही चाँदनी
और पूरी सी हलचल, दिल की वो साथ लाई
दबे पाँव खिड़की से डाला पहरा यूँ
कि खुद काली होकर भी.. रौशन यादों को साथ लाई..
रोज़ रोज़ देकर छोटे-बड़े चाँद का लालच
कई दफा.. अमावस भी साथ लाई
दरवाज़े पर बिठाकर ठंडी हवाओं को..
गर्म साँसों की नज़ाकत भी साथ लाई...
पहरों यूँ ही जगा लेने के बाद..
खोई नींदों की ज़मानत भी साथ लाई

है आधी सी रात और आधी ही हाथ आई..
फिर से रात आई और आधे चाँद के साथ आई..

Aahiste se jab raat aayi..
Kai saugaatein bhi saath laayi
Aadha sa chaand aur aadhi hi chaandani
Aur poori si halchul, dil ki vo saath laayi
Dabe paanv khidki se daala pahraa yun..
Ke khud kaali hokar bhi.. roushan yaadon ko saath laayi
Roz roz dekar
chhote bade chaand ka laalach..
kai dafaa amaawas bhi saath laayi
Darwaaze pe bithaa kar
thandi hawaaon ko..
Garm saanso ki nazaakat bhi saath laayi
Paharon yuun hi jagaa lene ke baad
Khoi needon ki zamaanat bhi saath laayi

Hai aadhi si raat aur aadhi hi haath aayi
Fir se raat aayi aur aadhe chaand ke saath aayi....

Saturday 29 April 2017

कब तक ?

मन की दीवारों में जो तहें हैं..
ना जाने कितने रहस्य एवं स्वार्थ से लिपटी काली काई के ढेर हैं
स्वजनों में स्वजन नहीं
स्वयं के हित की सोचते दुर्योधन हैं
कोमल-हृदय, निःस्वार्थ खड़े सम्मुख युधिष्ठर को
क्षण नहीं लगता वनवासी होने में!
विदित होकर भी, स्वयं का अधर्म..
कछुए का, अपने ही तन में छिपकर रहने जैसा...
सुरक्षित अनुभव देता है
कब तक? 
कब तक स्वंय की कुटिलता साथ देगी ?
कब तक ???
कदाचित तब तक,,
जब तक निःस्वार्थता, सभी लज्जापूर्ण वसनों को त्याग पूर्णतः निर्वस्त्र नहीं हो जाती !
या तब तक,, जब तक
सद्भावना अपनी कुटी से निकल नग्न तलवार धारण नहीं कर लेती !!
या कदाचित तब तक,, जब तक...
सहनशीलता अपनी हथेलियों को होठों से हटा... 
समस्त संसार को गुंजायमान नहीं कर देती ..

ज्ञात नहीं तुम्हें...
तुम्हारी नीतियाँ कुछ क्षणों तक संग हैं तुम्हारे
उपरांत, नीतियाँ कभी ना सुधर सकने वाली विकलांगता बनेगी
एवं तुम...
तुम आँखों में अश्रु, हाथों को ऊपर फैलाये..
पीठ पर अपने कर्मों का बोझ लादे..
अँधकार के दलदल में धँसते चले जाओगे...

एवं तुम्हारा अधर्म वहन करने वाला भी, 
विवश हो तुम्हें क्षमा तो कर सकेगा किंतु 
तुम्हारा उद्धार ना कर सकेगा !



Thursday 27 April 2017

Aankhon ke kinaaron pe...

ankhon ke kinaaron pe..
aansu pine wale honth bhi hain
Baahar nahi aane dete.. 
Khuraak bana lena fitrat hai....

Honthon pe aankhein hain chhipi hui
Pahra deti hain.. kuch kehne par
Qaid hain honth unki nazar mein
Rah jaate hain sirf aur sirf hans kar....

Kaano me pyaas hai koi ghuli si..
Kisi awaaz mein..
chand lafzon ko sun lene ki talab aur...
Rah rah kar chaunka jaane wale sannate mein jalte hue..

Pyaas hai sannate pi lene ki....

Jism jism naa rah kar ho gaya hai taboot koi puraana sa
Ya keh dun ke hai ye ab kisi kitaab mein likha, khoya fasaana sa..
Uthti girti kisi banjar ki dariya si
Dhadkan kuch anjaan.. hai sirf saanso ki zariya si !!